Tuesday, April 9, 2013

भारतीय घुमक्कड़ - शास्त्र के प्रणेता

भारतीय यात्रा संस्मरण - साहित्य के पिता "महापंडित" राहुल  सांकृत्यायन का जन्म अप्रैल 9, 1893 को आजमगढ़ में हुआ था. उनके माता - पिता ने उनका नाम केदार पाण्डेय रखा था. मात्र ग्यारह वर्ष की बाल अवस्था में उनके परिवार वालों ने उनका विवाह कर दिया था. मात्र 12 वर्ष की उम्र में ही गृह त्याग देने का निर्णय ले लिया था. कई बार प्रयास भी किया पर हर बार वे घर वालों द्वारा पकड़ लिए जाते थे. इसी प्रयास में 14 वर्ष की अवस्था में वे कलकत्ता चले गये, जहाँ से बड़ी मुश्किल से उन्हें मना कर वापस घर लाया गया. काशी के अंग्रेजी स्कूल की मामूली शिक्षा के बाद वे वही संस्कृत का अध्ययन करने लगे. सन 1912 में एक दिन अकस्मात पुनः भाग निकले तथा बिहार के सारण जिले के परसा- मठ में वैष्णव साधू बनकर रहने लगे. कुछ समय बाद वहाँ के महन्त के उत्तराधिकारी बने तथा वहा उनका नाम राम उदार बाबा पड़ गया.

परन्तु वहाँ भी मन न रमा और वे  रामानन्दी साधू हो गये तथा रामानन्द एवं रामानुज के दार्शनिक सिद्धान्तों के गहन अध्ययन हेतु 1913 - 14 में दक्षिण भारत की यात्रा पर निकल पड़े. विद्रोही स्वभाव का मन जब उन सिद्धांतों में भी न रमा तो वे पुनः बनारस वापस आये, आर्य समाज अपनाया और संस्कृत काव्य औए व्याकरण का अध्यापन करने लगे. 1915 में वे आगरा चले गए और मौलवी महेश प्रसाद से उर्दू, अरबी सीखी फिर लाहौर जाकर 1916 - 1919 के दौरान फारसी सहित अन्य कई भाषाओं का अध्ययन किया. गांधी जी द्वारा 1919 में रौलट एक्ट के विरोध और अमृतसर में घटे जालिआंवाला बाग़ नरसंहार ने उनपर गहरा डाला और वे एक सत्याग्रही के रूप में आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़े. 1921 से 1925 तक वे राजनैतिक बंदी के रूप में जेल में रहे. बक्सर और हजारीबाग़ जेलों में तीन साल से ऊपर का समय बिताने के बाद 1925 में वे रिहा हुए.

अब उनका झुकाव बौद्ध धर्म की और होने लगा था. 1927- 28 के दौरान वे सीलोन में संस्कृत अध्यापक नियुक्त हुए. वहाँ वे बौद्ध भिक्षु बन गये, पालि भाषा का अध्ययन किया तथा भगवान बुद्ध के पुत्र “ राहुल “ के नाम को अपने नाम के साथ जोड़ लिया जो न केवल आजीवन उनके नाम के साथ जुड़ा रहा बल्कि पहचान का एक मात्र पर्याय बन गया.

बौद्ध धर्म- ग्रंथो की खोज में वे 1929 में नेपाल होते हुए तिब्बत गये जहाँ भीषण कष्टों व बाधाओं को सहते हुए भी अनेक दुर्लभ बौद्ध- ग्रन्थो की खोज की. बौद्ध धर्म के प्रचार- प्रसार हेतु 1932- 33 में इंग्लैण्ड तथा अन्य यूरोपीय देशो की यात्रा पर निकले. 1936 में तिब्बत की तीसरी बार यात्रा करके 1937 में पुन: रूस चले गये. कुछ ग्रन्थो की खोज में 1938 में वे चौथी बार तिब्बत आये वही से वह पुन: सोवियत संघ लौट गये. सोवियत संघ अनेक बार जाने तथा निकट से मार्क्सवाद के प्रभाव को देखने से इनकी रुझान वामपंथी विचार- धारा की तरफ भी हुआ.

 भारत आ कर वे पुन: किसानो- मजदूरो से जुड़े तथा 1939 में अमवारी सत्याग्रह के कारण गिरफ्तार कर हजारीबाग जेल भेजे गये जहाँ 29 माह तक कारावास में रहे. गृहत्याग के बाद उन्होंने प्रतिज्ञा कर ली थी की पचास वर्ष की अवस्था के पहले वे अपने गाँव नही जायेंगे जिसका पालन करते हुए 1943 तक बाहर ही रहे. 1944 से 1947 तक वे सोवियत संघ में रहे और संस्कृत भाषा का अध्यापन करते रहे. 1947 में वे पुनः भारत वापस आये.

उनका व्यक्तित्व बहुआयामी तथा विविधापूर्ण था और उन्हें 36 भाषाओं का ज्ञान था. उनकी कृतियों में ”वोल्गा से गंगा“ प्रागैतिहासिक और ऐतिहासिक ललित- कथा संग्रह की एक अनोखी कृति है. अन्य प्रमुख कृतियाँ हैं - पाँच भागों में प्रकाशित आत्मकथा - मेरी जीवन यात्रा, भागो नहीं दुनिया को बदलो, सतमी के बच्चे, विस्मृत यात्री और अनेक जीवनियाँ.

पटना संग्रहालय में एक कक्ष राहुल सांकृत्यायन द्वारा संग्रहीत दुर्लभ ग्रंथों, पांडुलिपियों और पेंटिंग्स से भरा है. अप्रैल 14, 1963 को भारतीय घुमक्कड़ - शास्त्र के इस प्रणेता का देहावसान दार्जिलिंग में हुआ.


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