Wednesday, April 3, 2013

हम भूल चले हैं उनको .........

"मुझे आश्चर्य होता है कि क्या हमारे राजनैतिक आका जिनके ऊपर देश की प्रतिरक्षा की जिम्मेदारी है, उनमें इतनी भी समझ है कि वे 'मोर्टार' और 'मोटर' में, 'गन' और 'होवित्ज़र' में या 'गुरिल्ला' और 'गोरिल्ला' में भेद कर सकें"

ये शब्द एक ऐसे सैनिक थे, जिनके लिए देश की सुरक्षा सर्वोपरि थी. शौर्य के साथ साथ वे गज़ब का सेन्स ऑफ़ ह्यूमर भी रखते थे. युद्धभूमि में एक बार उन्हें दुश्मन की नौ गोलियाँ लगी थीं. जब उन्हें सैनिक अस्पताल लाया गया तो उनके बुरी तरह गोलियों से बिंधे शरीर को देख डॉक्टर ने ऑपरेट करने से मना कर दिया. उन्होंने डॉक्टर को बोला "कुछ नहीं हुआ, एक खच्चर ने ज़रा सी दुलत्ती मार दी थी".

ऐसे ही नहीं सब उन्हें "सैम बहादुर" कहा करते थे. जी हाँ यहाँ हम बात कर रहे हैं भारत के पहले फील्ड मार्शल जनरल सैम मानेकशा की. पारसी परिवार में जन्में सैम की स्कूली शिक्षा नैनीताल के प्रसिद्द शेरवूड कॉलेज से हुई थी. डॉक्टर पिता ने जब डॉक्टरी की पढाई के लिए सैम को कम उम्र होने के कारण इंग्लैंड जाने से मना किया तो विद्रोही सैम इंडियन मिलिट्री अकादमी की परीक्षा में शामिल हुए और देहरादून की नवनिर्मित अकादमी के प्रवर्तक बैच में ग्रेजुएट हुए.

1971 के बांग्लादेश मुक्ति - संग्राम में भारत के शामिल होने और दो सप्ताह से भी कम समय में अंजाम तक पहुंचाने में सैम बहादुर की दूरदर्शिता और सूझ बूझ का ही सबसे बड़ा योगदान था, जब अमेरिका के सातवें बेड़े की पाकिस्तान के समर्थन में हिन्द महासागर में मौजूदगी भी भारतीय सेना को पिछले पाँव पर नहीं धकेल सकी और नब्बे हज़ार सैनिकों ने भारत के समक्ष आत्म-समर्पण किया तथा नए राष्ट्र बांग्लादेश का जन्म हुआ.

पर इतिहास के पन्नों को टटोलें तो पता चलेगा कि तत्कालीन राजनैतिक नेतृत्त्व जल्दबाजी में कदम उठाने जा रहा था और अगर सैम मानेकशा ने बिना दबाव में आये विरोध न किया होता तो शायद 1962 के चीन युद्ध की ही तरह 1971 का इतिहास भी दुःखदाई ही रहता . जब अप्रैल 1971 में तत्कालीन राजनैतिक नेतृत्त्व ने मुक्ति-संग्राम में शामिल होने के लिए भारतीय सेना को कहा तो सैम मानेकशा ने साफ़ साफ़ इनकार कर दिया था, क्योंकि तब न तो सेना तैयार थी और जल्द ही बांग्लादेश में मानसून आने के बाद वहाँ की नदियाँ विकराल रूप ले लेती, जिससे सेना के आगे बढ़ने का मार्ग अवरुद्ध होता. ऐसे में सेना का मुक्ति - संग्राम में शामिल होना आत्मघाती होता.

3 अप्रैल यानी आज ही के दिन 1914 में पैदा हुए सैम बहादुर के जन्म शती वर्ष में सरकार को उनकी याद शायद नहीं आएगी. आखिर वे कोई राजनैतिज्ञ तो नहीं थे कि उनका जन्म-दिवस धूम धाम से मनाया जाय, पर ज्यादा दुःख तब हुआ था जब पांच साल पहले, देश के पहले फील्ड मार्शल की मृत्यु पर भी कोई राष्ट्रीय शोक नहीं मनाया गया था और ना ही तिरंगा झुकाया गया था.




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