Thursday, April 25, 2013

कालो हरिन: एक परिकथा संघर्ष की

उसका जन्म एक अतिनिर्धन दलित परिवार में  25 अप्रैल 1969 को केरल के त्रिचूर शहर में हुआ था. गरीबी का आलम ये था कि बचपन में उसे अपने परिवार की आर्थिक मदद के लिए त्रिचूर के नगर निगम स्टेडियम में सोडा वाटर की बोतलें बेचनी पड़ी थी. आर्थिक समस्याओं के चलते किसी अच्छे स्कूल में पढ़ाई कर बड़ा आदमी बन सकना तो शायद उस आर्थिक स्थिति में ख्वाब में भी संभव न था, पर हर युवा की तरह सपने उसके भी थे, अपने को साबित करने का यकीं भी था. सो जिस क्षेत्र में उसे कुछ उम्मीद दिखी, उसी में अपनी सारी ऊर्जा और इच्छाशक्ति लगा दी.

उसे मैदान में न सिर्फ गेंद को अपने काबू में रखना आता था, बल्कि प्रतिद्वंदी खिलाड़ियों को छकाते हुए बिजली की तेज़ी से आगे बढना भी आता था, बस इसी क्षमता पर मेहनत करनी शुरू कर दी. एक दिन केरल पुलिस के तत्कालीन डीजीपी एम. के. जोसफ की नज़र प्रैक्टिस करते इस युवक पर पड़ी और उनकी अनुभवी नज़रों ने पलक झपकते भाँप लिया कि इस युवक में अद्वितीय क्षमता है. जोसफ के अनुरोध पर केरल पुलिस की टीम में उस युवक को शामिल किया गया, वर्ष था 1987 का. और तब से उस युवक ने पीछे मुड़कर नहीं देखा.

आने वाले वर्षों में वही युवक अपने समय का भारत का सबसे सफल फुटबॉल खिलाड़ी बना. "कालो हरिन" के नाम से विख्यात भारतीय फुटबाल टीम के पूर्व कप्तान आई. एम. विजयन ने भारत के लिए पहला मैच 1989 में खेला था और जब 2003 में उन्होंने एफ्रो -एशियाई खेलों में सर्वाधिक गोल (4) दागकर भारतीय टीम को रजत पदक दिलाया तो अपने श्रेष्ठ फॉर्म में रहते हुए उन्होंने संन्यास ले लिया. भारतीय फुटबॉल के पोस्टर ब्वाय बाईचुंग भूटिया के साथ मिलकर विजयन ने भारतीय आक्रमण को पुनः परिभाषित किया और भारतीय फुटबॉल को नयी ऊँचाई पर पहुँचाया. आज भारतीय फुटबॉल फीफा रैंकिंग में 150 के आसपास है, वो विजयन के प्रभुत्व के दिनों में 100 - 110 के आसपास रहा करती थी.

अपने खेल जीवन के शिखर के दिनों में विजयन की प्रसिद्धि का आलम ये था कि मलेशिया और थाईलैंड सरीखे दक्षिण - पूर्वी एशियाई देशों के प्रतिष्ठित क्लब के ऑफर उनके पास हमेशा आते रहते थे, पर उन्होंने हमेशा भारत के क्लब को ही प्रार्थमिकता दी. अपने अंतर्राष्ट्रीय करियर में विजयन ने भारत के लिए कुल 40 गोल किये जो अपने समय का रिकॉर्ड था और जिसे आजतक सिर्फ बाईचुंग भूटिया ही बेहतर कर सके हैं. विजयन के नाम किसी अंतर्राष्ट्रीय फुटबॉल में तीसरा सबसे तेज़ गोल दागने का रिकॉर्ड भी है, जब 1999 के सैफ कप में भूटान के खिलाफ मात्र 12 सेकंड में उन्होंने फुटबॉल प्रतिपक्षी टीम के नेट में डाल दी थी.

कौन कहता है परीकथाएँ सिर्फ भारतीय क्रिकेट तक हीं सीमित हैं?              

Thursday, April 11, 2013

भारतीय सामाजिक क्रान्ति के पुरोधा: महात्मा ज्योतिबा फुले

"विद्येविना मती गेली, मतीविना नीति गेली, नीतीविना गती गेली, गतीविना वित्त गेले, वित्ताविना शुद्र खचले, इतके अनर्थ एका अविद्येने केले"

अर्थात विद्या या शिक्षा न रहने पर बुद्धि चली जाती है, बुद्धि न रहने पर नैतिकता चली जाती है, नैतिकता न रहने पर विकास नहीं होता, विकास न होने से समृद्धि नहीं आती और समृद्धि के न रहने से इंसान शूद्र ही रह जाता है, इतना सब कुछ अनर्थ होता है सिर्फ एक अकेले विद्या न अर्जन करने से.

ये विचार थे भारतीय सामाजिक क्रान्ति के पुरोधा और विचारक महात्मा ज्योतिबा फुले के जिनका पूरा नाम ज्योतिराव गोविंदराव फुले था और जिनका जन्म अप्रैल 11, 1827 को पुणे में हुआ था. उनका परिवार कई पीढ़ी पहले सतारा से पुणे आकर फूलों के गजरे आदि बनाने का काम करने लगा था, और इस कार्य में इतनी प्रवीणता हासिल कर ली थी कि पेशवाओं ने उन्हें और खेती के लिए जमीन दी. फूलों के काम में लगे रहने से ये लोग 'फुले' के नाम से जाने जाते थे. वे मात्र 9 माह के थे जब उनकी माता का देहांत हुआ. कम उम्र में ही पैत्रिक व्यवसाय में लग जाने के कारण उनकी पढ़ाई बीच में ही छूट गयी, जिसे उन्होंने बाद में पूरा किया. उस काल में प्रचलित बाल विवाह से ज्योतिराव भी अछूते नहीं रहे और मात्र 12 वर्ष की आयु में वे सावित्रीबाई फुले के साथ विवाह बंधन में बंध गए.

184
8 का वर्ष उनकी ज़िंदगी में महत्वपूर्ण था. एक उच्च जाति के मित्र के विवाह समारोह में मित्र के परिवारजनों ने ज्योतिबा से अपमानजनक व्यवहार किया और ज्योतिबा को भारतीय समाज और चेतना में गहरे स्थापित जाति-प्रथा के दंश का अनुभव हुआ. उसी समय उन्होंने निश्चय किया कि वे सामजिक न्याय के लिए संघर्ष करने हेतु अपना जीवन लगा देंगे. उनके अनुसार, पुराने भेदभावपूर्ण , असमान और शोषणात्मक सामजिक व्यवस्था को उखाड़ फेंके बिना स्वंत्रता, समानता, भाईचारे, सामजिक न्याय पर आधारित शोषणमुक्त सामजिक व्यवस्था की स्थापना नहीं की जा सकती. अस्पृश्यता के विभिन्न स्तरों यथा पिछड़े, शूद्र एवं अतिशूद्र श्रेणियों में विभक्त भारतीय समाज में एका स्थापित करने ले लिए उन्होंने स्वयं अपने घर के कुएँ का पानी बिना किसी पक्षपात के सभी के लिए उपलब्ध कराया और अपने घर के दरवाजे सभी के लिए खुले रखे.

भारतीय समाज में स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए उन्होंने नारी शिक्षा हेतु 1854 में एक स्कूल खोला जो इस देश में अपनी तरह का पहला विद्यालय था.
लड़कियों को पढ़ाने के लिए अध्यापिका नहीं मिली तो उन्होंने कुछ दिन स्वयं यह काम करके अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले को इस योग्य बना दिया. उच्च वर्ग के लोगों ने आरंभ से ही उनके काम में बाधा डालने की चेष्टा की, किंतु जब फुले आगे बढ़ते ही गए तो उनके पिता पर दबाब डालकर पति-पत्नी को घर से निकालवा दिया. कुछ समय के लिए उनका काम रुका अवश्य, पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और शीघ्र ही एक के बाद एक बालिकाओं के तीन स्कूल खोल दिए.

दलितों और निर्बल वर्ग को न्याय दिलाने के लिए ज्योतिबा ने
सितम्बर 24, 1873 को 'सत्यशोधक समाज' की स्थापाना की. जाति - प्रथा की पुरजोर मुखालफ़त के अलावा वेदों का भी मानने से इनकार किया. वे बाल-विवाह विरोधी थे और विधवा-विवाह के प्रबल समर्थक. उन्होंने उच्च जाती की विधवाओ के लिए 1854 में एक घर भी बनवाया था. उनकी समाजसेवा देखकर मई 11, 1888 को मुंबई में एक विशाल सभा में उन्हें 'महात्मा' की उपाधि दी गयी.

वे 1876 से 1882 तक पुणे म्युनिसिपल कारपोरेशन के सदस्य भी रहे.
उनकी समाजसेवा के लिए बड़ौदा के सयाजीराव महाराज ने उन्हें "भारत का ब्रूकर टी. वाशिंगटन" कहा था.

मानवता के इस महान सेवक का देहावसान 
28 नवम्बर 1890 को  63 वर्ष की अवस्था में हुआ था.

Tuesday, April 9, 2013

भारतीय घुमक्कड़ - शास्त्र के प्रणेता

भारतीय यात्रा संस्मरण - साहित्य के पिता "महापंडित" राहुल  सांकृत्यायन का जन्म अप्रैल 9, 1893 को आजमगढ़ में हुआ था. उनके माता - पिता ने उनका नाम केदार पाण्डेय रखा था. मात्र ग्यारह वर्ष की बाल अवस्था में उनके परिवार वालों ने उनका विवाह कर दिया था. मात्र 12 वर्ष की उम्र में ही गृह त्याग देने का निर्णय ले लिया था. कई बार प्रयास भी किया पर हर बार वे घर वालों द्वारा पकड़ लिए जाते थे. इसी प्रयास में 14 वर्ष की अवस्था में वे कलकत्ता चले गये, जहाँ से बड़ी मुश्किल से उन्हें मना कर वापस घर लाया गया. काशी के अंग्रेजी स्कूल की मामूली शिक्षा के बाद वे वही संस्कृत का अध्ययन करने लगे. सन 1912 में एक दिन अकस्मात पुनः भाग निकले तथा बिहार के सारण जिले के परसा- मठ में वैष्णव साधू बनकर रहने लगे. कुछ समय बाद वहाँ के महन्त के उत्तराधिकारी बने तथा वहा उनका नाम राम उदार बाबा पड़ गया.

परन्तु वहाँ भी मन न रमा और वे  रामानन्दी साधू हो गये तथा रामानन्द एवं रामानुज के दार्शनिक सिद्धान्तों के गहन अध्ययन हेतु 1913 - 14 में दक्षिण भारत की यात्रा पर निकल पड़े. विद्रोही स्वभाव का मन जब उन सिद्धांतों में भी न रमा तो वे पुनः बनारस वापस आये, आर्य समाज अपनाया और संस्कृत काव्य औए व्याकरण का अध्यापन करने लगे. 1915 में वे आगरा चले गए और मौलवी महेश प्रसाद से उर्दू, अरबी सीखी फिर लाहौर जाकर 1916 - 1919 के दौरान फारसी सहित अन्य कई भाषाओं का अध्ययन किया. गांधी जी द्वारा 1919 में रौलट एक्ट के विरोध और अमृतसर में घटे जालिआंवाला बाग़ नरसंहार ने उनपर गहरा डाला और वे एक सत्याग्रही के रूप में आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़े. 1921 से 1925 तक वे राजनैतिक बंदी के रूप में जेल में रहे. बक्सर और हजारीबाग़ जेलों में तीन साल से ऊपर का समय बिताने के बाद 1925 में वे रिहा हुए.

अब उनका झुकाव बौद्ध धर्म की और होने लगा था. 1927- 28 के दौरान वे सीलोन में संस्कृत अध्यापक नियुक्त हुए. वहाँ वे बौद्ध भिक्षु बन गये, पालि भाषा का अध्ययन किया तथा भगवान बुद्ध के पुत्र “ राहुल “ के नाम को अपने नाम के साथ जोड़ लिया जो न केवल आजीवन उनके नाम के साथ जुड़ा रहा बल्कि पहचान का एक मात्र पर्याय बन गया.

बौद्ध धर्म- ग्रंथो की खोज में वे 1929 में नेपाल होते हुए तिब्बत गये जहाँ भीषण कष्टों व बाधाओं को सहते हुए भी अनेक दुर्लभ बौद्ध- ग्रन्थो की खोज की. बौद्ध धर्म के प्रचार- प्रसार हेतु 1932- 33 में इंग्लैण्ड तथा अन्य यूरोपीय देशो की यात्रा पर निकले. 1936 में तिब्बत की तीसरी बार यात्रा करके 1937 में पुन: रूस चले गये. कुछ ग्रन्थो की खोज में 1938 में वे चौथी बार तिब्बत आये वही से वह पुन: सोवियत संघ लौट गये. सोवियत संघ अनेक बार जाने तथा निकट से मार्क्सवाद के प्रभाव को देखने से इनकी रुझान वामपंथी विचार- धारा की तरफ भी हुआ.

 भारत आ कर वे पुन: किसानो- मजदूरो से जुड़े तथा 1939 में अमवारी सत्याग्रह के कारण गिरफ्तार कर हजारीबाग जेल भेजे गये जहाँ 29 माह तक कारावास में रहे. गृहत्याग के बाद उन्होंने प्रतिज्ञा कर ली थी की पचास वर्ष की अवस्था के पहले वे अपने गाँव नही जायेंगे जिसका पालन करते हुए 1943 तक बाहर ही रहे. 1944 से 1947 तक वे सोवियत संघ में रहे और संस्कृत भाषा का अध्यापन करते रहे. 1947 में वे पुनः भारत वापस आये.

उनका व्यक्तित्व बहुआयामी तथा विविधापूर्ण था और उन्हें 36 भाषाओं का ज्ञान था. उनकी कृतियों में ”वोल्गा से गंगा“ प्रागैतिहासिक और ऐतिहासिक ललित- कथा संग्रह की एक अनोखी कृति है. अन्य प्रमुख कृतियाँ हैं - पाँच भागों में प्रकाशित आत्मकथा - मेरी जीवन यात्रा, भागो नहीं दुनिया को बदलो, सतमी के बच्चे, विस्मृत यात्री और अनेक जीवनियाँ.

पटना संग्रहालय में एक कक्ष राहुल सांकृत्यायन द्वारा संग्रहीत दुर्लभ ग्रंथों, पांडुलिपियों और पेंटिंग्स से भरा है. अप्रैल 14, 1963 को भारतीय घुमक्कड़ - शास्त्र के इस प्रणेता का देहावसान दार्जिलिंग में हुआ.


Friday, April 5, 2013

महान अभिनेता, महान व्यक्तित्व : ग्रेगरी पेक

हॉलीवुड के सफलतम और ख्यातिप्राप्त अभिनेताओं में से एक ग्रेगरी पेक का जन्म अप्रैल 5, 1916 को हुआ था. उन्होंने टिकट खिड़की पर सफलता अर्जित करने वाली अनेक फिल्में दी जिनमे से कुछ के नाम हैं - स्पेलबाउंड (1945), द पैराडाइन केस (1947), गनफाइटर (1950), रोमन हॉलिडे (1953), मोबी डिक (1956), ऑन द बीच (1959), गन्स ऑफ़ नैवेरोन (1961) आदि. पर वे सिर्फ एक सुपरस्टार ही नहीं एक मंझे हुए अभिनेता भी थे, जिसका सबूत है उनका पाँच बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के ऑस्कर पुरस्कार के लिए नामांकन. द कीज़ ऑफ़ द किंगडम (1944), द ईयरलिंग (1946), द जेंटलमैन्स एग्रीमेंट (1947) और ट्वेल्व ओ'क्लॉक हाई (1949) नामक फिल्मों के लिए नामांकित होने और चार बार पुरस्कार जीतते जीतते रह जाने के पश्चात टू किल ए मॉकिंगबर्ड (1962) में अपने रोल के लिए उन्हें अंततः सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का अकादमी पुरस्कार मिल ही गया.


टू किल ए मॉकिंगबर्ड (1962) फिल्म में दो बच्चों के विधुर पिता और एक अश्वेत आरोपी को (जिस पर झूठा आरोप लगाया गया था) न्याय दिलाने के लिए संघर्ष करते श्वेत अटॉर्नी एटिकस फिंच की जटिल भूमिका निभाने के लिए ग्रेगरी पेक को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का ऑस्कर पुरस्कार मिला था. ये फिल्म हार्पर ली की इसी नाम (टू किल ए मॉकिंगबर्ड ) पर लिखे गए उपन्यास पर आधारित है और तीन श्रेणियों में ऑस्कर पुरस्कार विजेता है. इस बेहतरीन फिल्म पर चर्चा फिर कभी.

बेल्जियम में जन्मी ब्रिटिश अभिनेत्री ऑड्री हेपबर्न ने जब हॉलीवुड में कदम रखा तो उन्हें कोई नहीं जानता था. और पहली फिल्म में ही उनके सामने थे सुपरस्टार ग्रेगरी पेक. पर ग्रेगरी पेक ने ऑड्री हेपबर्न को अपने ऊंचे कद का रौब में न आने और सहज रहने में स्वयं मदद की. यही नहीं, वे सबको ऑड्री हेपबर्न का परिचय इस तरह देते थे कि मेरी इस नयी फिल्म में मेरा काम तो बस ऐसे ही है, लेकिन हेपबर्न का काम इतना अच्छा है कि अगले साल का ऑस्कर उसे ही मिलेगा. और उनकी भविष्यवाणी बिलकुल सच साबित हुई. यहीं नींव पडी इन दो महान कलाकारों के बीच जीवन-पर्यन्त कायम रहने वाली मित्रता की. तब तक कई सफल फिल्में दे चुके ग्रेगरी पेक ऑस्कर के लिए चार बार नामांकित हो चुके थे, और कैसा संयोग बना कि अपनी पहली फिल्म में अभिनय के लिए ऑड्री हेपबर्न को ऑस्कर मिल गया. फिल्म का नाम था रोमन हॉलिडे (1953) जो अपने समय की बेहतरीन फिल्म मानी जाती है.

ग्रेगरी पेक की सहृदयता की एक और मिसाल है . जब 1954 में फिल्मफेयर पुरस्कार शुरू हुए (जिसका तब नाम था क्लेयर पुरस्कार), तो प्रथम पुरस्कार वितरण समारोह में विशिष्ट अतिथि के रूप में ग्रेगरी पेक को बुलाया गया था, पर प्लेन लेट होने के कारण वे समारोह में नहीं पहुँच सके. भारत की पहली मलिका - - तरन्नुम और स्टार रह चुकी सुरैया उनकी बहुत बड़ी फैन थीं और किसी पत्रिका को दिए अपने इंटरव्यू में उन्होंने अपनी सबसे बड़ी इच्छा ग्रेगरी पेक से मुलाक़ात करने की बतायी थी. कहते हैं शायद श्रीलंका (तब सीलोन) में किसी फिल्म की शूटिंग के दौरान ग्रेगरी पेक ने वो इंटरव्यू पढ़ा था, और मुंबई में बिताये चंद घंटों में से भी कुछ समय निकालकर ख़ास सुरैया से मुलाक़ात करने गए थे.


जैसा कि ऊपर बताया, ग्रेगरी पेक और ऑड्री हेपबर्न की मित्रता जीवन - पर्यन्त चलती रही. 1992 में ऑड्री हेपबर्न की मृत्यु पर उन्होंने गुरुदेब रबीन्द्रनाथ टैगोर की "अनएंडिंग लव" कविता सुनायी थी -

I seem to have loved you in numberless forms, numberless times
In life after life, in age after age, forever.
My spellbound heart has made and remade the necklace of songs,
That you take as a gift, wear round your neck in your many forms,
In life after life, in age after age, forever.

स्वयं ग्रेगरी पेक जून 12, 2003 को मृत्यु को प्राप्त हुए .

Thursday, April 4, 2013

Do You know Why the Caged Bird Sings

The free bird thinks of another breeze
and the trade winds soft through the sighing trees
and the fat worms waiting on a dawn-bright lawn
and he names the sky his own.

But a caged bird stands on the grave of dreams
his shadow shouts on a nightmare scream
his wings are clipped and his feet are tied
so he opens his throat to sing

The caged bird sings
with a fearful trill
of things unknown
but longed for still
and his tune is heard
on the distant hill
for the caged bird
sings of freedom. .” - Maya Angelou


 
One can feel the depth of pain expressed in these lines. Maya Angelou is an American Author, Poet and Activist. She is respected as a spokesperson of black people. Born on April 4, 1928, she has received over thirty Honorary Doctoral Degrees, apart from several literary awards. She is a close friend and mentor of one of the greatest media-person – Oprah Winfrey. She recited her poem at the inauguration of US President Bill Clinton in 1993, the recording of which received a Grammy Award.

However, one can hardly believe that an illustrious person's journey of life could be as painful as hers. One look at the list of professions she had to accept gives us a clue, which ranges from a pimp to night club dancer and performer, to an opera performer to an activist to act as a coordinator of Martin Luther King Jr.'s conference, to a journalist in Ghana and West Africa, to an actor, writer and Director of Plays and Television shows.

To have a glimpse of the sufferings Maya Angelou went through, one can read the first part of her acclaimed autobiography titled “I Know Why the Caged Bird Sings”. The book has the honor of longest running record (two years) on New York Times Paperback Bestseller List and was nominated for National Book Award. The book illustrates how strength of a character and love for literature can help one to overcome trauma and racism. The book tells us the story of a young girl, whose parents separated when she was three years of age, faced overt racism from her neighbors as a child, refused by a white dentist to treat her rooting tooth, just because of being a negro, and when she was only eight years of age, she was sexually abused and raped by her mother's boyfriend. The girl became near mute and remained reclusive until she met one Mrs. Bertha who encouraged her through books and communication to regain her voice and soul. The book thus tells us the story of transformation of a victim of racism with inferiority complex to a self possessed, dignified young woman capable of responding to prejudice.

Trivia: After hearing a speech of civil rights leader Martin Luther King Jr. for the first time in the year 1960, Maya Angelou was inspired to join civil rights movement as an activist. Incidentally, Maya's inspiration Martin Luther King Jr. was assassinated the same day when Maya was celebrating her Birthday in the year 1968.

Wednesday, April 3, 2013

हम भूल चले हैं उनको .........

"मुझे आश्चर्य होता है कि क्या हमारे राजनैतिक आका जिनके ऊपर देश की प्रतिरक्षा की जिम्मेदारी है, उनमें इतनी भी समझ है कि वे 'मोर्टार' और 'मोटर' में, 'गन' और 'होवित्ज़र' में या 'गुरिल्ला' और 'गोरिल्ला' में भेद कर सकें"

ये शब्द एक ऐसे सैनिक थे, जिनके लिए देश की सुरक्षा सर्वोपरि थी. शौर्य के साथ साथ वे गज़ब का सेन्स ऑफ़ ह्यूमर भी रखते थे. युद्धभूमि में एक बार उन्हें दुश्मन की नौ गोलियाँ लगी थीं. जब उन्हें सैनिक अस्पताल लाया गया तो उनके बुरी तरह गोलियों से बिंधे शरीर को देख डॉक्टर ने ऑपरेट करने से मना कर दिया. उन्होंने डॉक्टर को बोला "कुछ नहीं हुआ, एक खच्चर ने ज़रा सी दुलत्ती मार दी थी".

ऐसे ही नहीं सब उन्हें "सैम बहादुर" कहा करते थे. जी हाँ यहाँ हम बात कर रहे हैं भारत के पहले फील्ड मार्शल जनरल सैम मानेकशा की. पारसी परिवार में जन्में सैम की स्कूली शिक्षा नैनीताल के प्रसिद्द शेरवूड कॉलेज से हुई थी. डॉक्टर पिता ने जब डॉक्टरी की पढाई के लिए सैम को कम उम्र होने के कारण इंग्लैंड जाने से मना किया तो विद्रोही सैम इंडियन मिलिट्री अकादमी की परीक्षा में शामिल हुए और देहरादून की नवनिर्मित अकादमी के प्रवर्तक बैच में ग्रेजुएट हुए.

1971 के बांग्लादेश मुक्ति - संग्राम में भारत के शामिल होने और दो सप्ताह से भी कम समय में अंजाम तक पहुंचाने में सैम बहादुर की दूरदर्शिता और सूझ बूझ का ही सबसे बड़ा योगदान था, जब अमेरिका के सातवें बेड़े की पाकिस्तान के समर्थन में हिन्द महासागर में मौजूदगी भी भारतीय सेना को पिछले पाँव पर नहीं धकेल सकी और नब्बे हज़ार सैनिकों ने भारत के समक्ष आत्म-समर्पण किया तथा नए राष्ट्र बांग्लादेश का जन्म हुआ.

पर इतिहास के पन्नों को टटोलें तो पता चलेगा कि तत्कालीन राजनैतिक नेतृत्त्व जल्दबाजी में कदम उठाने जा रहा था और अगर सैम मानेकशा ने बिना दबाव में आये विरोध न किया होता तो शायद 1962 के चीन युद्ध की ही तरह 1971 का इतिहास भी दुःखदाई ही रहता . जब अप्रैल 1971 में तत्कालीन राजनैतिक नेतृत्त्व ने मुक्ति-संग्राम में शामिल होने के लिए भारतीय सेना को कहा तो सैम मानेकशा ने साफ़ साफ़ इनकार कर दिया था, क्योंकि तब न तो सेना तैयार थी और जल्द ही बांग्लादेश में मानसून आने के बाद वहाँ की नदियाँ विकराल रूप ले लेती, जिससे सेना के आगे बढ़ने का मार्ग अवरुद्ध होता. ऐसे में सेना का मुक्ति - संग्राम में शामिल होना आत्मघाती होता.

3 अप्रैल यानी आज ही के दिन 1914 में पैदा हुए सैम बहादुर के जन्म शती वर्ष में सरकार को उनकी याद शायद नहीं आएगी. आखिर वे कोई राजनैतिज्ञ तो नहीं थे कि उनका जन्म-दिवस धूम धाम से मनाया जाय, पर ज्यादा दुःख तब हुआ था जब पांच साल पहले, देश के पहले फील्ड मार्शल की मृत्यु पर भी कोई राष्ट्रीय शोक नहीं मनाया गया था और ना ही तिरंगा झुकाया गया था.