आज
हम भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष
पूरे होने का जश्न मना रहे
हैं.
जब हम पीछे
मुड़कर इन सौ वर्षों पर नज़र डालते हैं तो पाते हैं कि जो नाम सबसे
ऊपर आते हैं उनमें एक नाम सत्यजित
रे का है.
अभी
चंद दिनों पूर्व शताब्दी फिल्म
समारोह के दौरान पूछे गए एक
प्रश्न के उत्तर में विख्यात
फिल्मकार अदूर गोपालकृष्णन
ने कहा कि उनके हिंदी में फिल्म
बनाने की संभावना नहीं है,
क्यूँकि भाषा को वे
अभिव्यक्ति का एक माध्यम भर
न मानकर वे पूरी संस्कृति का
प्रस्तोता मानते हैं और फिर सिर्फ भाषा के आधार पर
किसी फिल्म को राष्ट्रीय
सिनेमा और क्षेत्रीय (
रीजनल)
सिनेमा में क्लासिफाई
करना सर्वथा अनुचित है.
एक
आध फिल्मों को अपवादस्वरूप
छोड़ दें तो सत्यजित रे ने बंगाली
में ही फिल्में बनायी हैं तो
क्या हम सत्यजित रे की फिल्मों
को सिर्फ इसी आधार पर खारिज
कर सकते हैं कि वे रीजनल फिल्में
हैं.
2 मई
1921 को कलकत्ता में
सुकुमार और सुप्रभा राय के
घर पुत्र के रूप में जन्मे
सत्यजित जब सिर्फ तीन वर्ष
के थे तो उनके पिता का स्वर्गवास
हो गया. उनकी पढ़ाई
कलकत्ता के प्रेसिडेन्सी
कालेज (अर्थशास्त्र)
से और गुरुदेब के
विश्वभारती विश्वविद्यालय
से हुई थी. शांति
निकेतन में प्रसिद्ध चित्रकार
नन्दलाल बोस और बिनोद बिहारी
मुख़र्जी से इन्होंने बहुत
कुछ सीखा. 1943 में
शान्तिनिकेतन से पढ़ाई पूरी
कर वे कलकत्ता चले गए और ब्रिटिश
विज्ञापन कंपनी डी. जे.
केमर में नौकरी शुरु
की. साथ साथ सिग्नेट
प्रेस के लिए किताबों के कवर
भी बनाने लगे. उनके
बनाए गए प्रमुख कवर थे - जिम
कॉर्बेट की "Man Eaters of Kumaon"
और जवाहर लाल नेहरु
की "Discovery of India". यहीं
पर विभूतिभूषण वंद्योपाध्याय
के उपन्यास "पथेर
पांचाली" के बाल
संस्करण पर काम करते हुए उन्हें
वो चिंगारी दिखी जिसने उन्हें
इस कृति को अमर बनाने पर काम
करने के लिए प्रेरित किया.
1950 में रे को उनकी
फर्म डी. जे. केमर
ने एजेंसी के मुख्यालय लन्दन
भेजा. लंदन में बिताए
तीन महीनों में रे ने 99
फिल्में देखी. एक
बेहतरीन फिल्म "बाइसिकल
थीफ" देखकर वे इस
क़दर प्रभावित हुए कि जब वे
थिएटर से बाहर निकले तो मन में
निर्देशक बनने की ठान चुके
थे. लंदन से भारत
लौटते हुए समुद्रयात्रा के
दौरान फ़िल्म "पथेर
पांचाली" की रूपरेखा
तैयार की. पर फिल्म
निर्माण कभी भी आसान नहीं रहा.
दो साल लग गए उन्हें
कलाकार और अन्य तकनिकी क्रू
मेंबर्स जुटाने में. अपनी
सारी जमा पूँजी लगाकर उन्होंने
"पथेर पांचाली"
का छायांकन शुरू किया
इस उम्मीद के साथ कि एक बार
छायांकन शुरू होते ही निवेशक
मिल जायेंगे. पर
उनकी उम्मीदें ढेर हो गयी.
आर्थिक दुश्वारियों
के चलते "पथेर
पांचाली" के निर्माण
में तीन और साल लग गए, पर
उन्होंने न तो हिम्मत हारना
सीखा था और ना ही समझौते करना.
न तो वे निवेशकों के
दबाव में आकर कहानी से छेड़छाड़
करने के लिए तैयार हुए और न ही
सरकारी दबाव में आकर सरकारी
परियोजनाओं और सुखान्त रखने
की, जो एक शर्त थी
सरकारी ऋण की. और
फिर "पथेर पांचाली"
रिलीज़ हुई और मील का
पत्थर साबित हुई.
"पथेर
पांचाली" न्यूयॉर्क
के म्यूजियम ऑफ़ मॉडर्न आर्ट
में प्रदर्शित की गयी और हर
तरफ से प्रशंसा बटोरने लगी.
फिल्म में संगीत था
रबिन्द्रो शंकर चौधरी का
जिन्हें हम विश्व विख्यात
सितारवादक और भारत रत्न रवि
शंकर के रूप में जानते हैं.
कहते हैं साठ के दशक
में सम्पूर्ण विश्व को अपनी
सुर लहरियों से झूमने पर विवश
कर देने वाले बिग फोर - बीटल्स
का संगीत भी "पथेर
पांचाली" के संगीत
से प्रभावित था, खासकर
जॉर्ज हैरिसन. 1956 के
कान्स फिल्म समारोह में "पथेर
पांचाली" ने "बेस्ट
ह्यूमन डॉक्यूमेंट" का
विशेष पुरस्कार जीता और
अंतर्राष्ट्रीय पटल पर पहली
बार भारतीय सिनेमा की गूँज
सुनाई दी.
सत्यजित
रे ने आगे चलकर कई और फिल्में
दी जिनमे से कुछ प्रमुख नाम
हैं - "अपराजितो",
"अपूर संसार",
"पारस पत्थर",
"जलसाघर", "नायक",
"गूपी गाईने बाघा
बाईने", "अरण्येर
दिन रात्रि", "प्रतिद्वंदी",
"शतरंज के खिलाड़ी",
"सोनार केला",
"हीरक राजार देशे",
"जय बाबा फेलूनाथ"
आदि. फिल्म
बनाने के अलावा वे लिखते भी
खूब थे, पर फिल्में
में जहां वे अमूमन गंभीर विषय
रखते थे, वहीं लिखते
समय वे गल्प को प्रमुखता देते
थे. उनके रचे गए
पात्र - "फेलूदा"
और "प्रोफेसर
शंकू" और उनकी
कहानियों का रोमांच कौन भूल
सकता है. 1992 में
देहावसान से पूर्व रे द्वारा
अर्जित पुरस्कारों की फ़ेहरिश्त
में कौन सा पुरस्कार नहीं है
- ऑक्सफ़ोर्ड
विश्वविद्यालय द्वारा प्रदत्त
मानद डॉक्टरेट, ऑस्कर
और भारत रत्न.
विश्व
विख्यात फिल्मकार अकीरा
कुरोसावा ने एक बार सत्यजित
रे के बारे में कहा था "रे
का सिनेमा न देखना इस संसार
में सूरज या चाँद को देखे बिना
रहने के समान है". आज
जब हम भारतीय सिनेमा के सौ
वर्ष का उत्सव मना रहे हैं,
फिल्मकारों को देखते
हैं सौ - दो सौ करोड़
का व्यवसाय करने वाली फिल्मों
और आंकड़ों के पीछे दौड़ लगाते
और दर्शकों को पाते हैं बे-सर
पैर की "मुम्बईया"
फिल्मों के लिए बॉक्स
ऑफिस पर लाइन लगाते तो सहज ही
महसूस होता है कि शायद हम ऐसे
समय में पहुँच गए हैं जहां
दर्शक सूरज और चाँद को देखे
बिना ही अपनी दुनिया पूरी हो
गयी मान लेता है. कोई
आश्चर्य नहीं कि सत्यजित रे
की श्रेणी की फिल्में मर रही
हैं और विश्व पटल पर भारतीय
सिनेमा प्रतिनिधित्व को तरस
रहा है.