Wednesday, September 25, 2013

Tomorrow is Yours

He is yet to touch 16 years of age but he is already creating ripples. Mumbai's Sarfaraz Khan played a superlative knock of 101 off just 66 balls to enable India U- 19 register victory over South Africa U - 19 today in a U-19 Limited Over Match at Vishakhapatnam. Sarfaraz had also scored a solid 50 in the first match.

Some of you might remember it was this lad - Sarfaraz, who hit the limelight a few years ago when he scored 439 in a Harris Shield match. He received an autographed bat and a pair of gloves from his idol - Sachin Tendulkar.

Not only with bat, Sarfaraz is good with his off-spins too.

Sarfaraz's younger brother (just 8 year of age) Musheer Khan recently became the youngest bowler in the history of Kanga League to claim a 5 wicket haul with his left arm spins. Musheer also broke the record of youngest debutant in the Kanga League History, breaking earlier record set by his elder brother Sarfaraz (debut at the age of 10 years in 2007).

And Musheer's prized possession - a ball autographed by the man who was instrumental in India's World Cup 2011 victory  - Yuvraj Singh. With this ball Musheer had got Yuvi stumped out in a practice match.

The brothers have already find a place in Wisden Cricketer's Almanack. Hope to listen more and more about these two brothers in future.

Sarfaraz Khan Photo Courtesy: DNA
Musheer Khan Photo Courtesy: Mid-Day

Thursday, September 12, 2013

जन्मशती महानतम एथलीट की

जेम्स क्लीवलैंड "जेसी" ओवन्स का जन्म आज से ठीक सौ साल पहले 12 सितम्बर 1913 को अमेरिका के अलाबामा में हुआ था. वे अपने माता - पिता की दस संतानों में सबसे छोटे थे. उनका बचपन और दूसरे बच्चों की तरह नहीं था, बाल्यावस्था के दूसरे सुख उनसे कोसों दूर थे. परिवार चलाने के लिये उनके पिता की आमदनी कम पड़ती थी तो बालक जेसी ने घर चलाने में सहायता करने के लिये ग्रॉसरी स्टोर से सामान ग्राहकों के घर पहुँचाने, बोझा लदवाने और जूते रिपेयर करने वाली दुकान पर काम करने में भी संकोच नहीं किया. इसी दौरान जेसी को दौड़ के प्रति अपने जूनून का पता चला. स्कूल में उनके कोच थे चार्ल्स रिले. स्कूल में दौड़ की प्रैक्टिस शाम को होती थी, पर जेसी तो शाम को जूते रिपेयर की दुकान पर काम करने जाते थे. कोच चार्ल्स रिले ने जेसी को सुबह प्रैक्टिस करने देने के लिए स्कूल के प्रबंधन से विशेष इजाजत हासिल की. चार्ल्स रिले से मिली प्रेरणा और दिशा - निर्देशों का अहसान जेसी ताउम्र मानते रहे.

"अलाबामा एंटीलोप" और "बकआई बुलेट" के नाम से भी पुकारे जाने वाले जेसी 1933 में सुर्ख़ियों में आये जब उन्होंने 100 यार्ड (91 मीटर) की दौड़ में तत्कालीन विश्व - रिकॉर्ड की बराबरी करते हुए 9.4 सेकंड में दौड़ पूरी की. फिर उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा. 25 मई 1935 को मिशिगन के बिग - टेन मीट में उन्होंने एक ही दिन में तीन विश्व - रिकॉर्ड तोड़े और चौथे की बराबरी की - 100 यार्ड की दौड़ में विश्व - रिकॉर्ड की बराबरी, लॉन्ग जम्प में विश्व - रिकॉर्ड बनाया (जो अगले 25 साल तक उनके ही नाम रहा), 220 यार्ड की दौड़ और 220 यार्ड की बाधा दौड़ में विश्व - रिकॉर्ड अपने नाम किया.

और फिर आया 1936 का बर्लिन ओलंपिक. जर्मन चांसलर हिटलर, के 'आर्य नस्ल की श्रेष्ठता' सिद्धांत को पूरी तरह गलत साबित करते हुए जेसी ओवन्स ने चार स्पर्धाओं में स्वर्ण पदक जीते. ये स्पर्धाएं थीं - 100 मीटर दौड़, 200 मीटर दौड़, 4 X 100 मीटर रिले दौड़ और लॉन्ग जम्प. लॉन्ग जम्प में जेसी के प्रतिद्वंदी थे जर्मनी के ही लुज़ लोंग. प्रारंभिक राउंड में लुज़ लोंग ने 7.25 मीटर की जम्प लगाकर ओलिम्पिक रिकॉर्ड बनाया वहीँ दूसरी ओर जेसी ओवन्स ने लगातार दो बार फ़ाउल कर दिया, जम्प के पहले दौड़ते वक़्त उनका पैर स्टार्ट लाइन को क्रॉस कर जाता था. जेसी ओवन्स काफी निराश होकर फील्ड में ही बैठ गये थे. अब एक ही प्रयास बचा था जिसमें अगले राउंड के लिये क्वालीफाई करने के लिए कम से कम 7.15 मीटर की जम्प लगानी थी और इस बार अगर फ़ाउल हो जाता तो जेसी प्रारंभिक राउंड से ही बहार हो जाते. लुज़ लोंग देख रहे थे, वे जेसी के पास गये और सलाह दी कि 'टेक – ऑफ' लाइन से कुछ इंच पहले से ही जम्प लगायें, तब भी क्वालीफाइंग दूरी तय कर लेंगे. जेसी ने लुज़ लोंग की सलाह मानी और 'टेक – ऑफ' लाइन से कुछ इंच पहले से ही जम्प लगाई, फिर भी अगले राउंड के लिए क्वालीफाई कर गये. उसी दिन हुए ऐतिहासिक फाइनल में जेसी ओवन्स, लुज़ लोंग और अन्य प्रतिद्वंदी ने ओलिम्पिक रिकॉर्ड पाच बार तोड़ा. लुज़ लोंग ने 7.87 मीटर की जम्प लगाईं, पर स्वर्ण पदक जीता जेसी ओवन्स ने 8.06 मीटर की जम्प लगाकर. पदक वितरण के पश्चात जेसी ओवन्स और लुज़ लोंग बाँहों में बाहें डाले ड्रेसिंग रूम तक साथ आये. हिटलर के सामने एक जर्मन का एक ब्लैक प्रतिद्वंदी से मित्रता निभाना कितना साहसिक कदम रहा होगा, आप सहज ही अंदाजा लगा सकते हैं.

इतिहास के सफलतम एथलीट माने जाने जेसी ओवन्स कि मृत्यु 1980 में फेफड़ों के कैंसर से हुई थी. अमेरिका ने उनके सम्मान में 1981 से "जेसी ओवन्स अवार्ड” शुरू किया, जो प्रतिवर्ष अमेरिका के सर्वश्रेष्ट एथलीट को दिया जाता है.

Sunday, September 1, 2013

सिपाही हिंदोस्तानियत का



मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो।
मेरे उस कमरे को लूटो
जिस में मेरी बयाज़ें जाग रही हैं
और मैं जिस में तुलसी की रामायण से सरगोशी कर के
कालिदास के मेघदूत से ये कहता हूँ
मेरा भी एक सन्देशा है

मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो।
लेकिन मेरी रग रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है,
मेरे लहु से चुल्लु भर कर
महादेव के मूँह पर फैंको,
और उस जोगी से ये कह दो
महादेव! अपनी इस गंगा को वापस ले लो,
ये हम ज़लील तुर्कों के बदन में
गाढा, गर्म लहु बन बन के दौड़ रही है।“ – डॉ. राही मासूम रज़ा की “मैं एक फेरीवाला” से उद्घृत

गाजीपुर के गंगौली में 1 सितम्बर 1927 को जन्में राही साहेब की शिक्षा अलीगढ में पूरी हुआ और वहीँ अध्यापन कार्य करने के दौरान उन्होंने `आधा गांव', `दिल एक सादा कागज', `ओस की बूंद' उपन्यास व 1965 के भारत-पाक युद्ध में शहीद हुए वीर अब्दुल हमीद की जीवनी `छोटे आदमी की बड़ी कहानी' लिखी. उर्दू वालों से इस बात पर विवाद हो जाने पर कि हिंदोस्तानी जबान सिर्फ फारसी लिपि में ही लिखी जा सकती है, राही साहेब ने देवनागरी लिपि में लिखना शुरू किया और अंतिम समय तक वे इसी लिपि में लिखते रहे. वे ऐसे हिंदुस्तान का सपना देखा करते थे, जिसकी सियासत में मजहब की कोई जगह न हो और जहां हिंदोस्तान की गंगा - जमुनी संस्कृति सबसे ऊपर हो. हिन्दुस्तान की इसी गंगा – जमुनी संस्कृति को अपनी सबसे बड़ी धरोहर व विरासत मानते थे. राही साहेब कहा करते थे कि उनकी तीन माँ हैं – नफीसा बेगम - जिन्होंने जन्म दिया, गंगा (नदी) - जिसकी गोद में खेला और अलीगढ़ यूनिवर्सिटी – जहां तालीम पाई. वे अपने धर्म जिसे वे “हिंदोस्तानियत” के नाम से पुकारते थे, का प्रचार करते थे. इस `हिंदोस्तानियत' को नुकसान पहुंचानेवाली वह हर उस शक्ति के खिलाफ थे, चाहे वह मुसलिम सांप्रदायिकता की शक्ल में हो या हिंदू सांप्रदायिकता की शक्ल में. इसीलिए वह जीवन भर इन शक्तियों की आंख की किरकिरी बने रहे. अपने साम्यवादी विचारों के चलते वे अलीगढ़ में अपने सहकर्मी संकीर्ण मानसिकता वाले प्रोफेसरों की नज़रों में खटकने लगे. आखिर में कुछ ऐसे ही संकीर्ण मानसिकता वाले लोगों द्वारा निरंतर की जा रही द्वेशगत राजनीति से आहात हो रज़ा साहेब नें अलीगढ़ छोड़ कुछ वक्फ़ा दिल्ली में गुज़ारा और फिर मुंबई की राह पकड़ी. कुछ लोग इसे पलायन कहते हैं और कुछ लोग हिजरत. अलीगढ़ छूटा पर रज़ा साहेब का इस शहर से लगाव नहीं, जिसे इन पंक्तियों में महसूस किया जा सकता है -  

मैं तो पत्‍थर था मुझे फेंक दिया ठीक किया

जिनसे हम छूट गये अब वो जहाँ कैसे हैं
शाखे गुल कैसे हैं खुश्‍बू के मकाँ कैसे हैं ।

ऐ सबा तू तो उधर से ही गुज़रती होगी
उस गली में मेरे पैरों के निशाँ कैसे हैं ।

कहीं शबनम के शगूफ़े कहीं अंगारों के फूल
आके देखो मेरी यादों के जहाँ कैसे हैं ।

मैं तो पत्‍थर था मुझे फेंक दिया ठीक किया
आज उस शहर में शीशे के मकाँ कैसे हैं ।