Thursday, April 11, 2013

भारतीय सामाजिक क्रान्ति के पुरोधा: महात्मा ज्योतिबा फुले

"विद्येविना मती गेली, मतीविना नीति गेली, नीतीविना गती गेली, गतीविना वित्त गेले, वित्ताविना शुद्र खचले, इतके अनर्थ एका अविद्येने केले"

अर्थात विद्या या शिक्षा न रहने पर बुद्धि चली जाती है, बुद्धि न रहने पर नैतिकता चली जाती है, नैतिकता न रहने पर विकास नहीं होता, विकास न होने से समृद्धि नहीं आती और समृद्धि के न रहने से इंसान शूद्र ही रह जाता है, इतना सब कुछ अनर्थ होता है सिर्फ एक अकेले विद्या न अर्जन करने से.

ये विचार थे भारतीय सामाजिक क्रान्ति के पुरोधा और विचारक महात्मा ज्योतिबा फुले के जिनका पूरा नाम ज्योतिराव गोविंदराव फुले था और जिनका जन्म अप्रैल 11, 1827 को पुणे में हुआ था. उनका परिवार कई पीढ़ी पहले सतारा से पुणे आकर फूलों के गजरे आदि बनाने का काम करने लगा था, और इस कार्य में इतनी प्रवीणता हासिल कर ली थी कि पेशवाओं ने उन्हें और खेती के लिए जमीन दी. फूलों के काम में लगे रहने से ये लोग 'फुले' के नाम से जाने जाते थे. वे मात्र 9 माह के थे जब उनकी माता का देहांत हुआ. कम उम्र में ही पैत्रिक व्यवसाय में लग जाने के कारण उनकी पढ़ाई बीच में ही छूट गयी, जिसे उन्होंने बाद में पूरा किया. उस काल में प्रचलित बाल विवाह से ज्योतिराव भी अछूते नहीं रहे और मात्र 12 वर्ष की आयु में वे सावित्रीबाई फुले के साथ विवाह बंधन में बंध गए.

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8 का वर्ष उनकी ज़िंदगी में महत्वपूर्ण था. एक उच्च जाति के मित्र के विवाह समारोह में मित्र के परिवारजनों ने ज्योतिबा से अपमानजनक व्यवहार किया और ज्योतिबा को भारतीय समाज और चेतना में गहरे स्थापित जाति-प्रथा के दंश का अनुभव हुआ. उसी समय उन्होंने निश्चय किया कि वे सामजिक न्याय के लिए संघर्ष करने हेतु अपना जीवन लगा देंगे. उनके अनुसार, पुराने भेदभावपूर्ण , असमान और शोषणात्मक सामजिक व्यवस्था को उखाड़ फेंके बिना स्वंत्रता, समानता, भाईचारे, सामजिक न्याय पर आधारित शोषणमुक्त सामजिक व्यवस्था की स्थापना नहीं की जा सकती. अस्पृश्यता के विभिन्न स्तरों यथा पिछड़े, शूद्र एवं अतिशूद्र श्रेणियों में विभक्त भारतीय समाज में एका स्थापित करने ले लिए उन्होंने स्वयं अपने घर के कुएँ का पानी बिना किसी पक्षपात के सभी के लिए उपलब्ध कराया और अपने घर के दरवाजे सभी के लिए खुले रखे.

भारतीय समाज में स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए उन्होंने नारी शिक्षा हेतु 1854 में एक स्कूल खोला जो इस देश में अपनी तरह का पहला विद्यालय था.
लड़कियों को पढ़ाने के लिए अध्यापिका नहीं मिली तो उन्होंने कुछ दिन स्वयं यह काम करके अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले को इस योग्य बना दिया. उच्च वर्ग के लोगों ने आरंभ से ही उनके काम में बाधा डालने की चेष्टा की, किंतु जब फुले आगे बढ़ते ही गए तो उनके पिता पर दबाब डालकर पति-पत्नी को घर से निकालवा दिया. कुछ समय के लिए उनका काम रुका अवश्य, पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और शीघ्र ही एक के बाद एक बालिकाओं के तीन स्कूल खोल दिए.

दलितों और निर्बल वर्ग को न्याय दिलाने के लिए ज्योतिबा ने
सितम्बर 24, 1873 को 'सत्यशोधक समाज' की स्थापाना की. जाति - प्रथा की पुरजोर मुखालफ़त के अलावा वेदों का भी मानने से इनकार किया. वे बाल-विवाह विरोधी थे और विधवा-विवाह के प्रबल समर्थक. उन्होंने उच्च जाती की विधवाओ के लिए 1854 में एक घर भी बनवाया था. उनकी समाजसेवा देखकर मई 11, 1888 को मुंबई में एक विशाल सभा में उन्हें 'महात्मा' की उपाधि दी गयी.

वे 1876 से 1882 तक पुणे म्युनिसिपल कारपोरेशन के सदस्य भी रहे.
उनकी समाजसेवा के लिए बड़ौदा के सयाजीराव महाराज ने उन्हें "भारत का ब्रूकर टी. वाशिंगटन" कहा था.

मानवता के इस महान सेवक का देहावसान 
28 नवम्बर 1890 को  63 वर्ष की अवस्था में हुआ था.

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