Friday, August 30, 2013

एक थीं अमृता



"यह जिस्म जब मिटता है
तब सब कुछ ख़त्म हो जाता है
पर चेतना के धागे
कायनाती कणों के होते हैं
मैं उन कणों को चुनूंगी
धागों को लपेटूंगी
और तुम्हें मैं फिर मिलूंगी......." - अमृता प्रीतम की कविता "मैं तुम्हें फिर मिलूंगी" का एक अंश

पंजाबी भाषा के सबसे लोकप्रिय लेखकों में से एक अमृता प्रीतम का जन्म अविभाजित पंजाब के गुजराँवाला में 31 अगस्त 1919 को हुआ था. उनके साहित्यिक योगदान के लिए 1956 में उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. 1969 में ‘पद्म – श्री’ सम्मान मिला. वर्ष 1982 में “कागज़ ते कैनवास” के लिये भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला. वर्ष 2004 में ‘पद्म – विभूषण’ से सम्मानित किया गया. उनकी अन्य प्रसिद्द पुस्तकों में उनकी आत्मकथा “रसीदी टिकट”, “अक्षरों के साये”, “दरवेशों की मेहंदी”, “कोरे कागज़” आदि हैं. और “पिंजर” पर फिल्म भी बन चुकी है.

विभाजन के समय वे लाहौर से दिल्ली आ गईं थीं और मृत्युपर्यंत दिल्ली में ही रहीं.

1947 भारत विभाजन के समय हुए पंजाब के भयंकर नरसंहार से उपजे दर्द को बयाँ करती अमृता प्रीतम की कविता “अज्ज आखाँ वारिस शाह नूं” की इन पंक्तियों ने, जो 1948 में उन्होंने देहरादून से दिल्ली की अपनी रेल यात्रा के दौरान लिखा था, अमृता जी को अमर कर दिया -  

आज मैं वारिस शाह से कहती हूँ, अपनी क़ब्र से बोल,
और इश्क़ की किताब का कोई नया पन्ना खोल,
पंजाब की एक ही बेटी (हीर) के रोने पर तूने पूरी गाथा लिख डाली थी,
देख, आज पंजाब की लाखों रोती बेटियाँ तुझे बुला रहीं हैं,
उठ! दर्दमंदों को आवाज़ देने वाले! और अपना पंजाब देख,
खेतों में लाशें बिछी हुईं हैं, और चेनाब लहू से भरी बहती है………”

No comments:

Post a Comment