
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो।
मेरे उस कमरे को लूटो
जिस में मेरी बयाज़ें जाग रही हैं
और मैं जिस में तुलसी की रामायण से सरगोशी कर के
कालिदास के मेघदूत से ये कहता हूँ
मेरा भी एक सन्देशा है
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो।
लेकिन मेरी रग रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है,
मेरे लहु से चुल्लु भर कर
महादेव के मूँह पर फैंको,
और उस जोगी से ये कह दो
महादेव! अपनी इस गंगा को वापस ले लो,
ये हम ज़लील तुर्कों के बदन में
गाढा, गर्म लहु बन बन के दौड़ रही है।“ – डॉ. राही मासूम रज़ा की “मैं एक फेरीवाला” से उद्घृत
गाजीपुर के गंगौली में 1 सितम्बर 1927 को
जन्में राही साहेब की शिक्षा अलीगढ में पूरी हुआ और वहीँ अध्यापन कार्य करने के
दौरान उन्होंने `आधा गांव',
`दिल एक सादा कागज', `ओस की बूंद' उपन्यास व 1965 के भारत-पाक युद्ध में शहीद हुए वीर अब्दुल हमीद की जीवनी `छोटे आदमी की बड़ी कहानी' लिखी. उर्दू वालों से इस बात पर विवाद
हो जाने पर कि हिंदोस्तानी जबान सिर्फ फारसी लिपि में ही लिखी जा सकती है, राही साहेब
ने देवनागरी लिपि में लिखना शुरू किया और
अंतिम समय तक वे
इसी लिपि में लिखते रहे. वे ऐसे हिंदुस्तान का सपना
देखा करते थे, जिसकी सियासत में मजहब की कोई जगह न हो और जहां
हिंदोस्तान की गंगा - जमुनी संस्कृति
सबसे ऊपर हो. हिन्दुस्तान की इसी गंगा – जमुनी संस्कृति को अपनी सबसे बड़ी धरोहर व विरासत मानते थे. राही साहेब कहा करते थे कि उनकी
तीन माँ हैं – नफीसा बेगम - जिन्होंने जन्म दिया, गंगा (नदी) - जिसकी गोद में खेला
और अलीगढ़ यूनिवर्सिटी – जहां तालीम पाई. वे अपने धर्म जिसे वे “हिंदोस्तानियत” के
नाम से पुकारते थे, का प्रचार करते थे. इस `हिंदोस्तानियत' को नुकसान पहुंचानेवाली वह हर उस शक्ति के खिलाफ थे, चाहे वह मुसलिम सांप्रदायिकता की शक्ल में हो या हिंदू
सांप्रदायिकता की शक्ल
में. इसीलिए वह जीवन भर इन शक्तियों की
आंख की किरकिरी बने रहे. अपने साम्यवादी विचारों के
चलते वे अलीगढ़ में अपने सहकर्मी संकीर्ण मानसिकता वाले प्रोफेसरों की नज़रों में
खटकने लगे. आखिर में कुछ ऐसे ही संकीर्ण मानसिकता वाले लोगों द्वारा निरंतर की जा
रही द्वेशगत राजनीति से आहात हो रज़ा साहेब नें अलीगढ़ छोड़ कुछ वक्फ़ा दिल्ली में
गुज़ारा और फिर मुंबई की राह पकड़ी. कुछ लोग इसे पलायन कहते हैं और कुछ लोग हिजरत. अलीगढ़
छूटा पर रज़ा साहेब का इस शहर से लगाव नहीं, जिसे इन पंक्तियों में महसूस किया जा
सकता है -
“मैं तो पत्थर था मुझे फेंक दिया ठीक किया
जिनसे हम छूट गये अब वो जहाँ कैसे हैं
शाखे गुल कैसे हैं खुश्बू के मकाँ कैसे हैं ।
ऐ सबा तू तो उधर से ही गुज़रती होगी
उस गली में मेरे पैरों के निशाँ कैसे हैं ।
कहीं शबनम के शगूफ़े कहीं अंगारों के फूल
आके देखो मेरी यादों के जहाँ कैसे हैं ।
मैं तो पत्थर था मुझे फेंक दिया ठीक किया
आज उस शहर में शीशे के मकाँ कैसे हैं ।“
जिनसे हम छूट गये अब वो जहाँ कैसे हैं
शाखे गुल कैसे हैं खुश्बू के मकाँ कैसे हैं ।
ऐ सबा तू तो उधर से ही गुज़रती होगी
उस गली में मेरे पैरों के निशाँ कैसे हैं ।
कहीं शबनम के शगूफ़े कहीं अंगारों के फूल
आके देखो मेरी यादों के जहाँ कैसे हैं ।
मैं तो पत्थर था मुझे फेंक दिया ठीक किया
आज उस शहर में शीशे के मकाँ कैसे हैं ।“
No comments:
Post a Comment